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Vaastu Shastra

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वास्तु क्या है ? 

वास्तु में विश्वकर्मा को ही इसका रचेता माना गया है व इसके प्रति जानकार भी इसी को जाना है परन्तु शास्त्रों में भृगु , अत्रि, वशिष्ठ , विश्वकर्मा , मयं , नारद ,अंगनजीत, विशालक्ष , इंद्र , ब्रह्मा , स्वामी कार्तिके , नंदीश , शौनक , गर्ग, श्री कृष्ण , अनिरुद्ध , शुक्र व वृहस्पति यह 18 जने वास्तु शास्त्र के सम्पूर्ण ज्ञाता व उपदेशक रहे हैं जो की सब लोकों में विख्यात रहे हैं जिन्होंने वास्तु के सम्पूर्ण ज्ञान पर आधारित शास्त्रों का निर्माण किया और मत्स्य जी के पूर्ण में भी इस का ज्ञान संगशिप्त में दिया गया है आज कल का वास्तु शास्त्री बिना गहराई के जाने भवन निर्माण तो करा देता है परन्तु नव निर्मित वास्तु अनुरूप बने भवन में भी वो दोष उत्पन्न हो जाते हैं जो की निकालने पर भी नहीं निकलते जिस के चलते अलग अलग उपायों का सहारा ले कर कुछ शांति प्राप्त करने की कोशिश की जाती है सम्पूर्ण वास्तु शास्त्री वो माना गया है जो ज्योतिष आयुर्वेद वास्तु व धार्मिक अनुष्ठान करने वाला पूर्ण पंडिताई का ज्ञाता हो आज कल इंसान इन चारों शास्त्रों का ज्ञाता नहीं हो सकता पंडित व आयुर्वेद के कार्य हेतु अच्छा पंडित व वैद्य तो प्राप्त किया जा सकता है परन्तु वास्तु सम्बन्धी कार्य करने वाले को ज्योतिष का ज्ञान होना भी जरूरी है इन 2 कार्य को जानने वाला इंसान इस के अंदर के कार्यो का भी पूर्ण रूप से ज्ञाता होना जरूरी है जैसे ज्योतिष में लग्न चन्द्र आदि कुंडलीआँ नक्षत्रो के योग महूर्तों का ज्ञान, बनाए जाने वाले भवन के स्वामी की कुंडली द्वारा स्थिति व देश काल पात्र और मनुष्य की जरूरतों पर ध्यान देने वाला हो उसे निर्माण सम्बन्धी नलके बिजली चिनाई लकड़ी रंग व अंदरूनी सजावट की जानकारी हो स अगर हो सके तो 50 प्रतिशत वो खुद यह कार्य करने वाला होना चाहिए इसीलिए सबसे अधिक वास्तु का ज्ञाता विश्वकर्मा जी को माना गया है तो ही सारे मिस्त्री इन की पूजा करते हैं 

वास्तु पुरुष क्या है ? 

एक धार्मिक कथा अनुसार पूर्व काल में अंधक दैत्य के घोर वध के समय महादेव जी के माथे से जो पसीने का जल निकला वो विकराल मुख वाला भनक शरीर युक्त सप्तदीपों व पृथ्वी को ग्रास करने वाला शिव के गण अन्धक दैत्य के खून को पीता हुआ यह गण विकराल शरीर धारण करता गया और त्रिलोक को ग्रास करने के लिए उसने शिव को प्रसन्न कर वर मांग लिया ,भोले ने भी भोले पन में वर दे दिया बस क्या था के हर तरफ हाहाकार होने लगी सभी देवता घबराकर इकठे हो गये इकट्ठे हो कर उन्होंने इसे ओंधे मुँह धरती पर लिटा दिया और उस के शरीर पर वास कर लिया उस गण ने शिव से कहा कि मैं कहाँ वास करूँ तब देवताओ ने कहा देव कर्म के अंत में जो बलि दी जाएगी वो तुम्हारा आहार होगा किसी भी तरह का भवन बनने पर तुम्हारी पूजा व दिशाओं का ध्यान किया जाएगा जो तुम्हारे अनुरूप भवन नहीं बनाएगा वो उस भवन का पूर्ण सुख नही ले पायगा अक्सर लोग ये कहते हैं कि हमारा भवन वास्तु अनुरूप नहीं फिर भी हम सुखी हैं और कई कहते हैं हमारा भवन वास्तु अनुरूप है फिर भी हम सुखी नहीं ऐसा ग्रह की दशा के कारण होता है जो ग्रह देवता वास्तु पुरुष को ओंधे मुहं धरती पर लिटा सकते हैं वो आप का और हमारा क्या हाल करेंगे इसलिए वास्तु व ज्योतिष का पूर्ण ज्ञान रखने वाला ही वास्तु शास्त्री कहलाता है आप की जन्म कुंडली में अगर मकान बनाने का योग होगा तो ही आप मकान बना पायेगे या थोड़ा सा भी योग हो तो ग्रह व वास्तु पुरुष की पूजा कर के बनाया जा सकता है मकान बनाने से पहले भूमि को जान कर बनावे भूमि के साथ दिशा , दिशा के साथ महूर्त आदि जान कर मकान की कुंडली का निर्माण कर समय समय पर वास्तु पुरुष व ग्रह की पूजा करते रहने से आप का मकान पूर्ण सुख देने वाला होगा मकान को बनाने से पहले भूमि की खरीद के समय उसकी दिशा व आकार पर भी ध्यान देना जरूरी है 

आज के युग में वास्तु का प्रचलन दिन ब दिन इतना बढ़ रहा है कि घर हो या फैक्ट्री में कोई भी आम आदमी चला जाए तो उसका पहला सवाल यही होगा कि नक्शा वास्तू के अनूरूप है या नही फिर शुरू हो जाता है सिलसिला सलाह मशवरे का कि फलां जगह पर रसोई हो व फलां जगह पर टायलेट बाथरूम हर किसी की अपनी ही डफली होती है व अपना ही राग सुनाता है इससे क्या होता है उस समय में बन रहे भवन व उसके मालिक की दिमागी सोच काफी हद तक वास्तु के हक में हो जाती है तो कभी कभी मालिक परेशान भी हो जाता है। कारण आज कल के समय में हर कोई वास्तु के अनूरूप बारे में पूरी तरह से जानकर नही परन्तु जो भी ज्ञान मेरे पास है वो आप लोगों तक पहुँचाना अपना सोभाग्य समझूंगा। वास्तु व ज्योतिष का कार्य करने वाले जातक को इसका पूर्ण रूप से ज्ञान करने के लिए 300 वर्षों की जरूरत होती है। जिस किसी ने भी आज के समय में अपने जीवन काल को 300 वर्ष तक ज्योतिष व वास्तू में रखा हो वो ही पूर्ण रूप से ज्ञानी होगा। ऐसा कथन हमारे शास्त्रों में लिखा है और सत्य भी है। फिर भला ज्योतिष व वास्तू की किताबें मात्र साल दो साल पढ़ कर हम अपने आपको पूर्ण ज्ञानी कह कर दुसरों को बेफकूफ बनाने लगते हैं। यह सोच काफी हद तक गल्त भी है। क्योंकि मनुष्य की उम्र मात्र आज के युग में ज्यादा से ज्यादा 80 वर्ष तक रह गई है। सो दुनियादारी के कार्य करते हुए 300 वर्ष का ज्ञान प्राप्त कर ही नही सकते है। 

दुसरा कारण यह है भी है कि वास्तू का जितना अधिक सम्बन्ध ज्योतिष के साथ हैं उतना  ही ज्योतिष का सम्बन्ध वास्तू के साथ है। अगर ज्योतिष एक पैर है तो वास्तू दुसरा दोनो को पूर्ण विधि विधान से अपने अनूरूप मकान दुकान फैक्ट्री बनाने से पहले भूमि का चयन लेने वाले स्थान के मालिक की कुण्डली में ग्रह गोचर व दशा की स्थिति व जगह लेने के बाद नींव पूजन व उसके महूर्त में किस ग्रह की पूजा व किस देवी देवता का अनुष्ठान कोण से लग्न नक्षत्र में समय अनूरूप किया जाए ज्योतिष का कार्य पूरा होने के बाद वास्तू अनूरूप किन किन ग्रहों का अधिकार किस दिशा में है उनका सामान या देश काल पात्र की स्थिति को मध्य नजर रख कर स्थान बनाना ही सही वास्तू है। वास्तु के देवता व बाकी देवताओं के स्थान पर गल्त कार्य कर भवन आदि बनाने पर दोष पैदा होने के बाद नुक्सान की शंका अधिक रहेगी।

कई लोग यह भी कह देते हैं कि हमारे ईशान कोण में टायलट पुरानी बनी हुई है। पहले तो हमें कोई नुक्सान नही हुआ तो अब क्या हो गया। अब वास्तू दोष हमें खराब करने लगा। उनकी बात सत्य है परन्तु दोष कुन्डली में आ पडा हो कुन्डली में दशा दोष बन रहा हो। दशा तब अनूकूल थी। लेकिंन अब किसी पाप पीडि़त ग्रह की दशा आ गई हो। जो दोष अब प्रबल होते ही आप को नुक्सान हुआ। सो वास्तू व ज्योतिष दोनो को मध्य नजर रख कर कार्य करने पर ही विशेष लाभ होता है। वास्तू के अनूरूप मकान बनाने के बाद हर साल वास्तू देव की पूजा पाठ या उपाय करने चाहिए जो ये अपने आप में पूर्ण रह सके। जैसे हर रोज़ खाना खाना जरूरी है, महिने 2 महिने में बालों की कटिंग करवा कर अपने आप को सुन्दर बनाना जरूरी है वैसे ही हर वर्ष अपने वास्तू व अपने ग्रहों के अनूकूल करने पर दुनिया की नजरों में आप स्वस्थ धनवान सुख सुविधाओं से समपन्न रह कर सुन्दर दिखने में आपका ही फायदा है।

प्रचीन काल में वास्तु विज्ञानियों ने धर्म और विज्ञान में भेद नही किया, उनकी दृष्टि में धर्म और विज्ञान एक दुसरे के पूरक हैं जिसके सामंजस्य से ही सृष्टि संचालित होती है, इसीलिए अनेक वैज्ञानिक तथ्यों एवं विधियों को धार्मिक विधान से जोडकर देखा गया है, यही कारण है कि प्रचीन ग्रंथों में सृष्टि विज्ञान के सुक्ष्मतम् तत्वों को व्यक्त किया गया है, भारतीय वास्तुकला के गर्भ में वैज्ञानिकता ही वह आधार है जिसके चलते सभी लोग वास्तुकला के प्रति आकृष्ट हो रहें है। वास्तुकला का मूल सिद्धांत यही है, यह भूमि-भवन तथा उसमें रखी जाने वाली वस्तुओं के चुंबकीय और विद्युतीय तरंगों  को ध्यान में रखकर निर्धारित किया जाता है, इसके आगे यह सूर्य चन्द्र की स्थिति दिशा, ग्रहों और नक्षत्रों की स्थिति का भी ध्यान रखता है, वास्तुशास्त्र भूखण्ड और भवन के बाहरी और भीतरी गुण दोषों पर विचार करता है। जिसके चलते भारतीय वास्तुकला पर वैज्ञानिकता सबल हो जाती है।

आयताकार भूखण्ड पर निवास करने से सभी प्रकार की सफलताऐं मिलती है। वर्गाकार भूखण्ड पर निवास करने से धन का आगमन होता है। वृताकार भूमि पर निवास करने से बौद्धिक बुद्धि एवं भद्रासन आकृति वाले भूखण्ड पर निवास करने से निवासी का कलयाण तथा चक्राकार भूमि पर राजभय, शकटाकार भूमि पर धन नाश, दण्डाकार भूमि पर निवास करने से पशुओं का नाश, शूर्पाकार भूमि पर गोधन का नाश, गौव्याघ्र बंधन की भूमि पर दुख तथा धनुषाकार भूमि पर निवास करने से किसी विशेष प्रकार का भय उत्पन्न होता है।

आज के युग में मनुष्य सुख शांति घर से बाहर खोजता है। जबकि हमारे पूर्वज सुख शांति घर के भीतर खोजते थे व ऋषि मुनियों के वचनों में यज्ञ दान व पूजन में सुख देखते थे। शुभ कार्य शुभ समय और सम्मत् कार्य उनकी उन्नति और समृद्धि का आधार थे। आज की सुख सुविधा और प्रचीन काल की परिस्थितियों में तुलना की जाए तो प्रचीन काल का मानव अधिक सुखी था। आज के मानव की मुख्य आवश्कताऐं रोटी कपडा और मकान के साथ साथ धन मान ऐश प्रस्ती हाई सोसाइटी उच्च वाहन और बडा होने की लालसा अधिक है। इन सब भौतिक वस्तुओं को पाने के लिए हर संभव कार्य करने को तैयार है। परन्तु उसका मूल आधार उसका अपना घर ही होता है। ज्योतिष और वास्तु को मध्य नजर रख कर बनाए गए भवन ये सभी प्रकार की सुख सुविधाए देते है । भवन निर्माण से पूर्व मजबूत आधार के लिए नींव खोदना अति अवश्यक है। विद्वान द्वारा बताए गए शुभ महुर्त में नींव खोद कर पुनः नींव भरने का कार्य प्रारंभ करना नीचक प्रतिष्ठा कहलाता है। आज की बढ़ती मंहगाई में मकान बना कर फिर से उसे तोडना व बनाना कहां की समझदारी है। बने हुए मकान को वास्तु के अनुरूप अगर आप नही बना सकते तो भूमि में दबाए जाने वाले सामान जिसे हम उपाय कहते हैं करके अपनी वास्तु स्मस्याओं को दूर कर लाभ ले सकते है। वास्तु शास्त्र को समझने के लिए सर्व प्रथम दिशा का ज्ञान होना आवश्यक है। प्रायः लोग प्रातः काल सुर्य उदय को देख कर पूर्व दिशा समझ लेते है। बल्कि यह धारणा गल्त है। सुर्य उदय का स्थान और समय उसके उत्रायण और दक्षिणायन में होने के कारण  कभी कभी कुछ परिर्वतन होते है। दिशा का सही ज्ञान हासिल करने के लिए अच्छी किस्म का कमपास आपके पास होना जरूरी है। 

वास्तु शास्त्र में दिशाओ व उपदिशाओं का विशेष महत्व बताया गया है। जैसे ग्रह नक्षत्रों का मानव जीवन पर प्रभाव पडता है वैसे ही दिशाओं का प्रभाव होता है। इन दिशाओं का ज्ञान भवन बनाने वाले को जरूर होना चाहिए। इसके ज्ञान हेतु सबसे पहले दिशा सूचक यानि कम्पास का होना अति आवश्यक है। जिसके माध्यम से हम अपने लेने वाले प्लाट को गहराई के साथ देख सकते हैं कि कोन सी दिशा वाला यह प्लाट है। कुल दिशाऐं दस होती हैं जिसमें आठ दिशाओं को प्रमुख माना गया है। जैसे पूर्व जिस तरफ से सुर्य उदय होता है, पूर्व-उत्तर ईशान कोन, उत्तर, उत्तर-पश्चिम वायव्य कोन, पश्चिम जिस तरफ सुर्य अस्त होता है , पश्चिम-दक्षिण नैत्रत्य कोन, दक्षिण, दक्षिण-पूर्व अग्नि कोन पर सुर्य उदय होने वाली व सुर्य अस्त होने वाली दिशा सुर्य द्वारा सही न समझें कारण शास्त्र अनुसार सुर्य के उत्तरायण व दक्षिणायन में जाने से पूर्व व पश्चिम दिशाओं में कुछ अन्तर आ जाता है। इसलिए दिशा सूचक कम्सास का प्रयोग करना अति उत्तम होगा। इनमें जो दो दिशाऐं है वो मूल आकाश व पृथ्वी हैं। इन का प्रयोग भी मान्य है। मकान बनाने में दिशाओं के साथ पंच तत्वों का भी विशेष महत्व दिया गया है। जैसे वायु तत्व के लिए वायव्य कोन अग्नि तत्व के लिए अग्नि कोन जल तत्व के लिएईशान कोन पृथ्वी तत्व के नैत्रत्य कोन आकाश तत्व के लिए ब्रम्ह स्थान को माना गया है। जो वास्तू दिशा व इन पांच तत्वों को मध्य नजर न करके मकान बनाता है। इस के फल स्वरूप उसे दैहिक भौतिक व आर्थिक कष्टो का सामना करना पड़ता है। पंच तत्व क्या है इसका दिशाओं से क्या सम्बन्ध है यह तो हम आपको बता चुके है। वास्तव में पंच तत्व का मनुष्य व धरती से गहरा नाता क्यों है इसका वर्णन करते है। जब ब्रम्हा ने तप कर बहुत बडे ग्रंथ का निर्माण किया तो ब्रम्हा जी ने प्रजा के रचने की मन में इच्छा हुई जिसे हम यह कहते हैं कि ब्रम्हा जी ने सृष्टि रची। उस समय मानस पुत्र हुए जो कि मन से रचे गए थे। तभी इनका नाम मानस पड़ा। मनुष्य के हर अंग पर अलग अलग देवी देवताओं का वास है। बुद्धि से मोह, अंधकार से क्रोध का जन्म होता है। तो इन में तीन गुण विराजमान रहते है। सातविक ,तामसिक, राजसिक इन तीनों की समान स्थिति को प्रकृति कहते है और कोई प्रकृति को प्रधान भी मानते है। इन तीनो के देवता ब्रम्हा विष्णु व शिव कहे गए है। वास्तव में इन की मुर्ति एक ही है। विकार युक्त प्रधान प्रकृति से महां तत्व हुआ। महां तत्व से मान का बढाने वाला अंहकार हुआ। उसमें पांच इन्द्रीयां हुई। यह पांचों इन्द्रीयां बुद्धि के वशीभूत रहती है। कान, त्वचा, नेत्र, जीभ व नाक यह पांच ज्ञान इन्द्रीयां हैं और गुदा, लिंग, हाथ, पैर और वाणी यह पांच कर्मेन्द्रीयां है। शब्द, स्र्पश, रूप, रस व गंध उन पांचों ज्ञान इन्द्रीयों के विष्य हैं और मल त्यागना आन्नद होना ग्रहण करना गमन करना और बोलना यह पांचों उन कर्मेन्द्रीयों की क्रिया हैं। इनमें ग्यारवां कर्म बुद्धि और गुण है। गुण से संयुक्त मन है। इन ज्ञान इन्द्रीयों के सूक्षम अवयव उस मन की मूर्ति के आश्रय होते है। इसीलिए उनको तन्मात्रा कहते है। इसी से ही संसार की रचना करने पर जो ब्रम्हा जी का मन बना वह आकाश तत्व है। इसकी तन्मात्रा शब्द गुण होता है। आकाश से यानि आकाश के विकार से वायु तत्व हुआ। इसका गुण स्र्पश से हांेता है। वायु तत्व की स्र्पशता से अग्नि तत्व हुआ। उस अग्नि के शब्द, स्र्पश व रूप से तीन गुण उत्पन्न हुए। अग्नि के विकार से चार गुणों वाला जल तत्व हुआ। इसकी तन्मात्रा रस है। विशेष करके रस गुणात्मक ही जल है। उस जल के रस से गंध की तन्मात्रा वाली पांच गुणों से युक्त पृथ्वी हुई। इस लिए पंच तत्व वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी और आकाश को माना गया है।   

जब भी मकान का निर्माण करना हो उस समय के महूर्त में ग्रहों के गोचर को पूर्ण रूप से इन योगों के मुताबिक समय निकाल कर अच्छे लग्नों में नींव महुर्त पूर्ण विधि विधान से करने पर मकान व मकान मालिक के लिए शुभ रहेंगें। मकान दुकान फैक्ट्री के सही पूजन विधि व विधिवत भूमि में दबाए जाने वाले सामान दिशा अनुसार कोन कोन से कोणों का नीचा ऊँचा व समान्य होना सही कार्य शैली आदि कई कारणों का ध्यान में रख कर करने पर धन मान यश व सम्पूर्ण सुख का कभी भी आभाव नही होगा। शर्त कि विधिवत कार्य कराने वाला हो, दोनो का समय भी अच्छा हो कभी भी ईंट का महूर्त ऐसे वैसे न कर गोचर में स्थित गुरू ग्रह की स्थिति को देख कर ही करें।गुरू लग्न में, सुर्य षष्ठ में, बुध सप्तम में, शुक्र चतुर्थ में, शनि तृतिय में हो तो 100 वर्ष। शुक्र लग्न में सुर्य तृतिय में मंगल षष्ठ में गुरू पंचम में हो तो 200 वर्ष। शुक्र लग्न में, बुध दशम में, सुर्य एकादश में व गुरू केन्द्र में हो तो 200 वर्ष। उच्च राशि का गुरू उपरोक्त योग में हो तो 300 वर्ष। चन्द्र , बुध, गुरू, शुक्र उच्चराशि के होकर चतुर्थ भाव में शुभ ग्रहों के युक्त हों तो 200 वर्ष से अधिक। शुक्र मूल त्रिकोण या उच्च में होकर चतुर्थ भाव में हो तो ग्रह स्वामी सुखी संतुष्ट रहें व आयु 100 वर्ष से अधिक गुरू चतुर्थ में चन्द्र दशम में शनि मंगल एकादश भाव में हो तो 80 वर्ष कोई ग्रह शत्रु नवमांश में हो कर 1,7,10, भाव में हो तो वह मकान एक या दो वर्ष में बिक जाता है। लग्न में गुरू दशम में शुक्र, एकादश में सुर्य, मंगल हो तो लक्ष्मी युक्त घर की आयु 80 वर्ष होती है। लग्न में उच्च का शुक्र, गुरू चतुर्थ में हो या उच्च या स्वक्षेत्री होकर एकादश स्थान में हो तो लक्ष्मी युक्त चिरकाल गृह आयु है। कर्क का चन्द्रमा एकादश स्थान में गुरू केन्द्र में हो धन व अरोग्य सहित चिरकाल तक वास रहे। 

अधिक जानकारी के लिए हमारे वास्तू सम्बन्धी लेख पढ़े।  

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